माँ शब्द कहने मात्र से मन में एक उमंग ,आनंद और प्रसन्नता की लहर दौड़ जाती है। माँ के ममत्व के समक्ष संसार के हर सुख ऐशो आराम व्यर्थ से प्रतीत होते है। माँ एक ऐसी शख्सियत होती है जो स्वयं दुःख सहकर बदले में बच्चो को फूलो का उपहार देती है। स्वयं दुःख को सहन करते हुए बच्चो के सुख की अभिलाषा करती है। स्वयं भूखे रहकर बच्चो के भोजन का प्रबंध करती है। माँ धरती के सामान हर दुःख दर्द को अपने सिने में दबा कर रहती है और मुख से उफ़ तक नही करती है। जब कभी भी बच्चो के ऊपर किसी प्रकार की विपत्ति आती है तो बच्चा अपने माँ के शीतल छाया को ही स्मरण करता है। और माँ के मातृत्व को प्राप्त कर ही उसे सुख की प्राप्ति होती है। माँ बच्चे को लाड भी करती है और समय पड़ने पर उसे दंड भी देती है बच्चे के हर अच्छे कार्य पर माँ को असीम आनंद आता है। माँ और बच्चे का अटूट सम्बन्ध है जिसे दुनिया की कोई ताकत तोड़ नही सकती बच्चा अगर बुरा होता है तो भी माँ बुरी नही होती संस्कृत के निम्न सूक्ति में सत्यार्थ का दर्शन होता है-
" पुत्रो कुपुत्रो जायते क्वचिदपि माता कुमाता न भवति। "
संतान के हर सुख में माँ सुखी होती है और हर दुःख में माँ दुखी होती है लेकिन अपवाद स्वरुप आज के युग में भी कुछ संतान ऐसे होते है जो माँ को भार स्वरुप बहन करते है उनकी किसी प्रकार की परवाह नही करते जो माँ स्वयं गीले में सोकर भी बच्चे को सूखे में सुलाकर बच्चे के सुख की अभिलाषा करती है संपूर्ण जीवन बच्चो के लिए समर्पित कर देती है.उफ़ उसी माँ को इतना अनादर, आज दस नौकर के भोजन का प्रबंध हो सकता है लेकिन माँ को भोजन देना भार स्वरुप प्रतीत होता है। माँ ही प्रथम पाठशाला की प्रथम गुरु है माँ ही बच्चो को अच्छे संस्कारो से युक्त करती है। इसलिए कहा भी गया है --------"जननी जन्मभूमिस्च स्वर्गादपि गरीयसी"